मनुष्य को अपनी शक्तियों का पूर्ण तथा सही उपयोग करना है : मुनि पीयूष
करनाल, आशुतोष गौतम। उपप्रवर्तक श्री पीयूष मुनि जी महाराज ने श्री आत्म मनोहर जैन आराधना मन्दिर से अपने दैनिक सन्देश में कहा कि प्रतिदिन मनुष्य के मन में एक ही बात आती है कि वह किसी तरह प्रगति पथ पर आगे बढ़ता जाए। प्रत्येक प्राणी यही कामना करता है कि वह किसी से दौड़ में पीछे न रह जाए, दूसरों के कदमों से कदम मिला कर वह भी अग्रसर होता जाए। केवल इच्छाएं करते रहने से लक्ष्य नहीं मिलता। हवाई किले बनाने से लाभ नहीं होता। यह विश्व एक बगीचा है जिसमें अनेक प्रकार के पुष्प खिलते हैं परन्तु पुष्प वही सार्थक है जो विश्व में अपनी महक फैला जाए। जिस पुष्प में सुगन्ध नहीं है वह सुन्दर होने पर भी शिरोधार्य नहीं होता। प्रत्येक पुष्प जो खिलता है, उसे सूखकर गिरना तथा मिट्टी में मिलना होता है, परन्तु अन्त में कोई भी उसके मुरझाने की चिन्ता के कारण उसे असमय में नष्ट नहीं करना चाहता। जितने काल का उसका जीवन है उसका सदुपयोग किया जाता है। एक फूल जब तक खिला रहता है, तब तक वह अनवरत रूप से अपनी महक दूसरों को देता है। अपनी छोटी सी जिन्दगी का एक पल भी वह व्यर्थ नहीं खोता। फूल कभी भी महक फैलाना बन्द नहीं करता। किसी ने नहीं देखा होगा कि किसी वक्त फूल मुर्दे की तरह निश्चेष्ट होकर पड़ गया हो। प्रकृति द्वारा दिए गए काम को वह सुन्दर ढंग से करता चला जाता है। मनुष्य को भी कुदरत से यह विलक्षण शरीर और इतने सारे अंगोपांग मिले हैं परन्तु काम करने और आत्मोन्नति करने के लिए। सोचने की बात है कि क्या मनुष्य अपनी इन शक्तियों का पूर्ण तथा सही उपयोग करता है। क्या अपने शरीर से वह दूसरों के लिए सहायक बनता है अथवा अपनी इन्द्रियों को सही मार्ग पर चलाते हुए आत्म कल्याण के लिए प्रयत्न करता है। ऐसे अनुपम शरीर को पाकर मनुष्य को भवसागर से पार उतरने की कोशिश करनी चाहिए। एक पुष्प की तरह मनुष्य के शरीर से यहीं आशा की जाती है कि वह सतत संसार के सभी प्राणियों के लिए अपने सद्गुणों की सुगन्ध फैलाता रहे। अपने सद्गुणों से जीवन का निर्माण करे तथा औरों को भी सहयोग प्रदान करे। मुनि जी ने कहा कि इसी वजह से मनुष्य के शरीर को कमल की उपमा दी जाती है। जिसके मुख से वाणी का अमृत बरसता है, जिसके हाथों से दान रूपी झरना प्रवाहित होता है, जिसके हृदय में दया का स्रोत बहता है वही महापुरुष कहलाता है तथा उसी के अंगों मुख, आँख, हाथ-पैर तथा हृदय को कमल से उपमित किया जा सकता है। केवल मानव शरीर पा लेना ही संतोषजनक नही है, मानवीय गुणों की अपने जीवन में प्रतिष्ठा करके ही सच्चा मानव बनना सम्भव है। सच्चा इंसान बनना अधिक गौरवपूर्ण है। सच्चा इंसान ही नैतिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से विकास करके महामानव बन सकता है।