शांति संतोष का ही दूसरा नाम है-मुनि पीयूष
करनाल, आशुतोष गौतम। उपप्रवर्तक श्री पीयूष मुनि जी ने श्री आत्म मनोहर जैन आराधना मन्दिर से अपने दैनिक सन्देश में कहा कि वास्तव में शांति संतोष का ही दूसरा नाम है तथा वह आत्मा का एक स्वाभाविक गुण है। उसकी खोज आत्मा में ही करनी चाहिए। आत्मा में शांति का अक्षय खजाना मौजूद है। बाहर इसकी प्राप्ति के लिए दौड़-धूप करना व्यर्थ है। इसे समझे बिना वह न तो शांति पाने का सही मार्ग पकड़ सकता है और न ही सही स्थान पर पहुंच सकता है। संतोष पाने के लिए मनुष्य को अपनी आत्मा में ही इसकी खोज करनी होगी, अपने आप को समझना होगा तथा लोभ पर विजय प्राप्त करनी होगी। संतोष रूपी अमृत से तृप्त जनों को जो सुख मिलता है, वह धन के लोभ से इधर-उधर दौडऩे वालों को हरगिज प्राप्त नहीं हो सकता। सच्चा धन सन्तोष ही है। विलासिता तो दरिद्रता है जो कृत्रिमता के आवरण में छिपी रहती है। विवेकी पुरुष भौतिक वस्तुओं के आकर्षण से स्वयं को बचाकर अपनी आत्मिक शांति तथा संतोष की रक्षा एवं विकास करता है। धन-दौलत से सुख और शांति प्राप्त करने की इच्छा करना मृग-मरीचिका से प्यास बुझाने के समान है। न तो धन के होने से शांति मिलती है और न उसके अभाव में। धनी को और धन पाने की लालसा बनी रहती है। इस तरह निर्धन धन पाने के लिए दुखी रहता है और धनी अपने धन को बढ़ाने की हवस के कारण व्याकुल रहता है। व्यक्ति इंद्रियों के सुखों को नहीं छोड़ता, गुरुओं के उपदेशों को अमल में नहीं लाता तथा सदग्रन्थों का अध्ययन करके आत्मा को निर्दोष और संतोषमय नहीं बनाता। जड़ बुद्धि वाले व्यक्ति शांति के स्त्रोत नहीं समझ पाते। कुछ व्यक्ति धन में सुख मानते हैं परन्तु धन के अम्बार लगाकर भी उन्हें शांति नहीं मिलती। कुछ सत्ता में शान्ति मानते हैं परंतु सत्ता हासिल कर के भी शांति का अनुभव नहीं कर पाते। सुख या शांति का झरना धन और सत्ता में नहीं बल्कि हृदय में प्रवाहित होता है। इसे बाहरी वस्तुओं में खोजने वाले इससे वंचित रहते हैं। सांसारिक वस्तुओं की सुन्दरता अवास्तविक, मन कल्पित तथा परछाई के समान है। वास्तविक और स्थाई ज्योति तो आध्यात्मिक सौंदर्य की ही है। मनुष्य बाहरी प्रवृत्तियों में इतना उलझा रहता है कि उसे अपने जीवन स्रोत पर नजर डालने का मौका ही नहीं मिलता। दिन-प्रतिदिन उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है और वह व्याकुलता का अनुभव करता है। सचमुच संसार के विषय-भोगों की तृष्णा आग के समान है जो निरन्तर बढ़ती जाती है तथा मनुष्य की साधना, उसका उद्देश्य खतरे में पड़ जाता है।