अभिमानी अपना सर्वनाश करता है : मुनि पीयूष
करनाल, आशुतोष गौतम ( 10 जून ) उपप्रवर्तक श्री पीयूष मुनि जी महाराज ने श्री आत्म मनोहर जैन आराधना मन्दिर से अपने दैनिक सन्देश में कहा कि अभिमान रूपी शत्रु पर विजय पाना जरूरी है क्योंकि यह आत्मा को नरक तथा पशु योनि में ले जाता है और उसकी आत्मिक हानि करता हैं। लोक में निन्दित अहंकारियों की गति निश्चित रूप से नरक होती है। इसलिए समझदार व्यक्ति को अभिमान को सदैव विनाशकारी समझकर उससे बचना चाहिए। अभिमान गुणी से गुणी व्यक्ति को भी दुर्गुणी बना देता है। जब तक इसे दूर नहीं किया जाता तो इसकी वजह से उसके सारे गुण ढ़क जाएगें या नष्ट हो जाएंगे। बुढ़ापा सुन्दरता को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राणों को, ईर्ष्या धर्मचर्या को, क्रोध शान्ति को, अनार्य सेवा शील को, काम लज्जा को नष्ट करता है परन्तु अभिमान सभी गुणों को नष्ट कर देता है। अहंकार का आसन मनुष्य के हृदय में है और यदि यह वहाँ पर नहीं है तो यह सृष्टि में कहीं भी नहीं है। अभिमान विनय, श्रुत, शील, त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) का घातक है तथा विवेक नेत्रों को नष्ट करके मानव को अन्धा बना देता है। कुछ लोग अपने लाभ का अहंकार करते हैं। पुण्य के कारण उन्हे कदम-कदम पर लाभ मिलता है। हर व्यक्ति से उन्हें अनायास ही लाभ प्राप्त हो जाता है। उन्हें भाई-बन्धु भी ऐसे मिल जाते हैं जो उनके लाभ में सहयोगी बन जाते हैं। उन्हें घर के द्वार पर शुभ-लाभ लिखे बिना अनुकूलता मिलती है परन्तु दुर्भागी लोग सोने में हाथ डालें तो उनका हाथ लगते सोना भी कोयला बन जाता है। दुनिया में भाग्य का ही सारा खेल है। अपने लाभ का अहंकार करने से ऐसा अन्तराय कर्म बंध (बाधक कर्म) जाता है जिससे व्यक्ति दूसरों को लाभ न पंहुचाकर अपने लाभ का अहंकार करने में ही लगा रहता है। मुनि जी ने कहा कि दुनिया में अज्ञानी लोगों को नश्वर वस्तुओं का घमण्ड होता है परन्तु आश्चर्य है कि विद्वानों को अपनी विद्या, शिक्षितों को शिक्षा का अहंकार सताता है। पहले जिन्होंने गुरुजनों की सेवा करके ज्ञान पर पर्दा डालने वाला कर्म काटा होता है, उन्हे जल्दी ही विद्या प्राप्त हो जाती है। उनकी याददाश्त बड़ी तेज होती है। इस तरह वे जल्दी ही ज्ञान से सम्पन्न हो जाते हैं परन्तु मोहनीय कर्म के प्रभाव से उन्हें ज्ञान का घमण्ड सताने लगता है। जान लेने से कुछ भी लाभ नहीं होता जब तक कि ज्ञान होने पर व्यक्ति अपनी बुराईयां नहीं छोड़ता। जीवन के अन्य अहंकार ज्ञान होने पर नष्ट हो जाते हैं परन्तु यदि ज्ञान का ही अहं हो जाए तो उसे दूर करने का कोई भी उपाय नहीं किया जा सकता। ज्यों-ज्यों व्यक्ति अधिक जानता है, त्यों-त्यों उसे ज्ञान होता है कि वह कुछ भी नहीं जानता। अभिमान के कारण व्यक्ति को केवल (पूर्ण) ज्ञान नहीं होता तथा जब व्यक्ति वीतराग होकर अनन्त ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है तो उसे किसी भी किस्म का अहंकार नहीं सताता। तप अपनी कमियों को दूर करने के लिए किया जाता है परन्तु कभी-कभी तप भी अहंकार को जन्म देता है। जो तप ज्ञानपूर्वक नहीं किया जाता, जिसका उद्देश्य ऋद्धि-सिद्धि तथा प्रसिद्धि प्राप्त करना है, उससे घमण्ड पैदा हो जाता है। आन्तरिक तप से शुद्धि होती है और वह अन्दर की मैल दूर करता है। अहंकार भीतर की गंदगी है जो व्यक्ति को अशुद्ध करती है। यही कारण है कि बाहर से तप के बड़े-बड़े अनुष्ठान करने वाले भी अहंकार के शिकार हो जाते हैं। अहंकार कैसा भी हो, वह सर्वनाश करता है। वह किसी भी तरह से ग्रहण करने योग्य नहीं है।