रक्षाबंधन में आत्म शुद्धि तथा रक्षा की भावना है :मुनि पीयूष
करनाल, आशुतोष गौतम। उपप्रवर्तक पीयूष मुनि ने श्री आत्म मनोहर जैन आराधना मन्दिर से अपने दैनिक सन्देश में कहा कि भारतवर्ष पर्व प्रधान देश है। भारत जितने पर्व किसी भी अन्य देश में नहीं मनाएं जाते। अन्य देशों में गिने-चुने पर्व मनाए जाते हैं परन्तु भारत में इतने पर्व मनाए जाते हैं जिन्हें गिन पाना भी कठिन है। प्रत्येक पर्व का कुछ न कुछ महत्त्व तथा इतिहास होता है। प्राचीन कठोर वर्ण-व्यवस्था वाले समाज में इस पर्व को विशेषतया ब्राह्मणों का पर्व माना जाता है। आज के दिन ब्राह्मण लोग अपनी शुद्धि करते हैं तथा पवित्र स्थानों एवं नदियों में स्नान करते हैं परन्तु विचारणीय बात यह है कि बाहर के स्नान से पाप कैसे धुल सकते हैं। पाप तो संयम, समता तथा तपस्या की गंगा में स्नान से धुलते हैं। विवेक जल से साधना रूपी साबुन के द्वारा रगड़-रगड़ कर मन का मैल छुड़ाया जा सकता है। इस पर्व में आत्म शुद्धि तथा रक्षा की भावना रहती है। मुनि जी ने कहा कि प्राचीन काल में वर्षा की अधिकता के कारण ऋषि श्रावण शुक्ला एकादशी को अपने आश्रमों में चातुर्मास के लिए लौट आते थे तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को पुन: देशाटन के लिए आश्रम छोड़ देते थे। जिस दिन विद्वान, ब्राह्मण आश्रमों में आते थे, यज्ञ प्रारम्भ होता था जिसकी पूर्णाहुति आज के दिन होती थी। इस दिन क्षत्रिय राजा आश्रम के अध्यक्ष की पूजा तथा सत्कार करते थे और वह क्षत्रिय नरेश के दाहिने हाथ में पीले रंग का रक्षा सूत्र देकर अपनी रक्षा का दायित्व राजपुरुषों को सौंप देते थे। शरणागत की रक्षा प्राण तथा धन देकर करना अभयदान है। बेसहारा को सहारा देना परमात्मा को प्रसन्न करना है। प्राणीमात्र के प्रति दया से ही स्वर्ग मिल सकता है। जिसके दिल में दया नहीं, उसकी सारी क्रियाएं निरर्थक हैं। योद्धा रणभूमि में सैकड़ों का संहार कर सकता है परन्तु एक दुखी को राहत पहुंचाना, रोते हुए के आंसू पौछना बड़ा कठिन है। दुनिया का अस्तित्त्व अस्त्र बल पर नहीं बल्कि दया और आत्म बल पर है। दया परमात्मा की निजी गुण है। दयालु प्रत्येक प्राणी में परमात्मा का अस्तित्व मानता है।