आत्मा की दृढ़ता शरीर से जुड़ी हुई नहीं होती: मुनि पीयूष
करनाल, आशुतोष गौतम। उपप्रवर्तक श्री पीयूष मुनि जी महाराज ने श्री आत्म मनोहर जैन आराधना मंदिर से अपने दैनिक संदेश में कहा कि व्यक्ति का शरीर भले ही कमजोर हो परन्तु उसका मनोबल दृढ़ होने पर वह कर्म शत्रु को पराजित कर सकता है और साधना की सर्वोच्च श्रेणी को पार करता हुआ अक्षय सुख का अधिकारी बन सकता है। इसके विपरीत मनोबल दृढ़ न होने पर शरीर सशक्त होते हुए भी कर्म शत्रु उसे परास्त कर अपने सामने नतमस्तक कर निस्तेज बना देते हैं। परिणामस्वरूप जीव को अनेकानेक दुखो, कष्टों तथा तकलीफों का सामना करना पड़ता है और मानव शरीर व्यर्थ चला जाने के कारण भवसागर पार करना मुश्किल हो जाता है। आत्मा की दृढ़ता शरीर की दृढ़ता पर निर्भर नहीं होती। आत्मा की पवित्रता के लिए शरीर की दृढ़ता अथवा खूबसूरती कोई मूल्य नहीं रखती। शरीर का असली मोल साधना से निर्धारित होता है। जो शरीर आत्मा की साधना में सहायक होता है, वही मूल्यवान कहलाने का अधिकारी होता है। इसके उलट जो शरीर आत्मा को नरक के द्वार पर पहुंचा देता है और भवभ्रमण बढ़ा देता है उसके रूपसम्पन्न होने पर भी उसका कोई मूल्य नहीं है। इसके लिए मनुष्य का घमंड करना बिल्कुल व्यर्थ है। शरीर कितना भी मनमोहक और सुघड़ हो पर उस के वशीभूत होकर अगर मानव विनय, विवेक आदि को भूलकर पर-पदार्थों में आसक्त होकर रहता है तो उससे संसार बढ़ता ही है और इसीलिए ऐसा शरीर आत्मा के लिए शत्रु ही साबित होता है, मित्र नहीं। आत्मा का शुद्ध स्वरूप केवल मानव को नहीं बल्कि कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों को भी प्राप्त है परन्तु उस विशुद्ध स्वरूप पर आवरण छाए हुए हैं। उन आवरणों की मलिनताएं दूर नहीं होतीं। आत्मा में आए विकार अनादि होने पर भी सान्त हैं अर्थात इनका अन्त किया जा सकता है। अन्त करने में समर्थ आत्मा दृढ़ कहलाती है। शरीर की दुर्बलता कुछ ऐसी परिस्थितियों के कारण होती है जिन पर मनुष्य का वश नहीं होता। मन की दुर्बलता को निकाल फैकना मनुष्य की दृढ़ इच्छाशक्ति पर टिका हुआ है। हिम्मत हार जाना असफलता की निशानी है। निराश और साहसहीन व्यक्ति शरीर तथा आत्मा सम्बन्धी किसी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता। वह कभी भी अपने इच्छित कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। मुनि जी ने कहा कि शरीर कमजोर होने पर भी अगर मनुष्य की आत्मिक शक्ति दृढ़ होती है तो वह मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। शारीरिक साधना से मानसिक साधना अनेक गुणा महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि शरीर के व्यापार के बिना मन की प्रवृत्ति से ही जीव आधे क्षण में मोक्ष में पहुंच सकता है। मन का योग बहुत शक्तिशाली है और यह आधे क्षण में सातवें नरक में अथवा मोक्ष में पहुंचा देता है। शरीर से दुर्बल होते हुए भी जिनकी आत्मिक शक्ति और मनोबल सुदृढ़ होता है वे बड़े-बड़े असंभव काम भी कर सकते है और अचरज भरे कामों को पूरा करके सबको दांतों तले उंगली दबाने के लिए मजबूर कर देते है। स्वयं को कमजोर समझना चिन्ता का लक्षण है। हीनता असफलता का कारण है। मन के लंगड़े को असंख्य देवता भी मिलकर नहीं उठा सकते। मन का योग वाणी तथा शरीर के योग से कहीं अधिक शक्तिशाली होता है। मन के अनुसार ही वाणी बोलती है और शरीर क्रियाएं करता है। इसीलिए मन को मजबूत बनाकर अपना और दूसरों का कल्याण किया जा सकता है।